लॉकडाउन जिंदगी, ये कैसा वक्त है, ये कैसा दौर है, पूरी दुनिया बेतरह डरी हुई है....

क्वारंटाइन में मैं अकेले उदास कमरे में कैद हूं। घर की बॉलकनी से सड़क की तरफ देखता हूं... खाली, वीरान, अंतहीन सड़क। जिस पर कल तक भीड़-भाड़ और आती-जाती हजारों कारों की हार्न की कर्कश आवाजें गूंजती थीं। आज अजब खामोशी है। इन लंबी, सीधी, सुनसान सड़कों के किनारे खड़े अकेले तन्हा उदास पेड़। दूर दूर तक कोई इंसान नहीं। सिर्फ कुछ आवारा कुत्तों के भौंकने की आवाजें, नीरवता को भंग करती हैं। चौराहे पर पत्थरों के कुछ महापुरुषों की मूर्तियां हैं, जिनके चेहरों पर भी मुर्दानगी दिखती है। भरी दोपहरी में हर तरफ एक अजीब-सी डरावनी निस्तब्धता है, जो अपने चारों तरफ शोकपूर्ण माहौल तैयार कर रही है। इसे मरघट का सन्नाटा कहूं या जीवन की चिर-प्रतीक्षित शांति। हमेशा जीवन्त रहने वाला ये शहर इतना निष्प्राण मुझे कभी नहीं लगा। वक्त कैसे अनोखे ढंग से बदलता और चौंकाता है। हमें अक्सर भीड़ से भरी इस दुनिया में अकेलेपन का अहसास होता था। पर अब लॉकडाउन के इस अकेलेपन में अचानक गुम हुई उस भीड़ ने हमारी संवेदनाओं को सुन्न कर दिया है। अब चारों तरफ पसरी खामोशी और उसके दबाव ने, अकेलेपन को और गहरा कर दिया है। कितनी ...